ऋषिः - आगस्त्य ऋषिः

देवता - यज्ञो देवता

छन्दः - ब्राह्मी त्रिष्टुप्

स्वरः - धैवतः

स्वर सहित मन्त्र

द्यां मा ले॑खीर॒न्तरि॑क्षं॒ मा हि॑ꣳसीः पृथि॒व्या सम्भव॑। अ॒यꣳहि त्वा॒ स्वधि॑ति॒स्तेति॑जानः प्रणि॒नाय॑ मह॒ते सौभ॑गाय। अत॒स्त्वं दे॑व वनस्पते श॒तव॑ल्शो॒ वि॒रो॑ह स॒हस्र॑वल्शा॒ वि व॒यꣳ रु॑हेम॥४३॥

स्वर सहित पद पाठ

द्याम्। मा। ले॒खीः॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। मा। हि॒ꣳसीः॒। पृ॒थि॒व्या। सम्। भ॒व॒। अयम्। हि। त्वा॒। स्वधि॑ति॒रिति॒ स्वऽधि॑तिः। तेति॑जानः। प्र॒णि॒नाय॑ प्र॒ति॒नायेति॑ प्रऽनि॒नाय॑। म॒ह॒ते। सौभ॑गाय। अतः॑। त्वम्। दे॒व॒। व॒न॒स्प॒ते॒। श॒तवल्श॒ इति॑ श॒तऽव॑ल्शः। वि। रो॒ह॒। स॒हस्र॑वल्शा॒ इति॑ स॒हस्र॑ऽवल्शाः। वि। व॒यम्। रु॒हे॒म॒ ॥४३॥


स्वर रहित मन्त्र

द्यां मा लेखीरन्तरिक्षं मा हिꣳसीः पृथिव्या सम्भव। अयꣳहि त्वा स्वधितिस्तेतिजानः प्रणिनाय महते सौभगाय। अतस्त्वं देव वनस्पते शतवल्शो विरोह सहस्रवल्शा वि वयꣳ रुहेम॥४३॥


स्वर रहित पद पाठ

द्याम्। मा। लेखीः। अन्तरिक्षम्। मा। हिꣳसीः। पृथिव्या। सम्। भव। अयम्। हि। त्वा। स्वधितिरिति स्वऽधितिः। तेतिजानः। प्रणिनाय प्रतिनायेति प्रऽनिनाय। महते। सौभगाय। अतः। त्वम्। देव। वनस्पते। शतवल्श इति शतऽवल्शः। वि। रोह। सहस्रवल्शा इति सहस्रऽवल्शाः। वि। वयम्। रुहेम ॥४३॥