yajurveda/38/19

क्ष॒त्रस्य॑ त्वा प॒रस्पा॑य॒ ब्रह्म॑णस्त॒न्वं पाहि।विश॑स्त्वा॒ धर्म॑णा व॒यमनु॑ क्रामाम सुवि॒ताय॒ नव्य॑से॥१९॥

क्ष॒त्रस्य॑ त्वा॒। प॒रस्पा॑य। प॒रःपा॒येति॑ प॒रःऽपा॑य। ब्रह्म॑णः। त॒न्व᳖म्। पा॒हि ॥ विशः॑। त्वा॒। धर्म॑णा। व॒यम्। अनु॑। क्रा॒मा॒म। सु॒वि॒ताय॑। नव्य॑से ॥१९ ॥

ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः

देवता - यज्ञो देवता

छन्दः - निचृदुपरिष्टाद्बृहती

स्वरः - मध्यमः

स्वर सहित मन्त्र

क्ष॒त्रस्य॑ त्वा प॒रस्पा॑य॒ ब्रह्म॑णस्त॒न्वं पाहि।विश॑स्त्वा॒ धर्म॑णा व॒यमनु॑ क्रामाम सुवि॒ताय॒ नव्य॑से॥१९॥

स्वर सहित पद पाठ

क्ष॒त्रस्य॑ त्वा॒। प॒रस्पा॑य। प॒रःपा॒येति॑ प॒रःऽपा॑य। ब्रह्म॑णः। त॒न्व᳖म्। पा॒हि ॥ विशः॑। त्वा॒। धर्म॑णा। व॒यम्। अनु॑। क्रा॒मा॒म। सु॒वि॒ताय॑। नव्य॑से ॥१९ ॥


स्वर रहित मन्त्र

क्षत्रस्य त्वा परस्पाय ब्रह्मणस्तन्वं पाहि।विशस्त्वा धर्मणा वयमनु क्रामाम सुविताय नव्यसे॥१९॥


स्वर रहित पद पाठ

क्षत्रस्य त्वा। परस्पाय। परःपायेति परःऽपाय। ब्रह्मणः। तन्व᳖म्। पाहि ॥ विशः। त्वा। धर्मणा। वयम्। अनु। क्रामाम। सुविताय। नव्यसे ॥१९ ॥